
Bihar-S.K.-Singh
आजादी के दो दशक बाद तक बिहार भारत का एक सुशासी राज्य रहा। लेकिन 80 के दशक के बाद से भ्रष्टाचार और तुष्टिकरण की राजनीति हावी हो गयी। परिणाम यह हुआ कि बिहार बीमारू राज्य बनता चला गया। पिछड़ेपन के मामले में 1970 में बिहार का देश के राज्यों में नीचे से दूसरा स्थान था। उस समय देश का सर्वाधिक पिछड़ा राज्य ओडिशा था।
बिहार, जहाँ मगध साम्राज्य विकसित हुआ और वैशाली जहाँ से गणतंत्र का उद्भव हुआ, आज फिर एक बार अपने राजनीतिक अन्तर्विरोध के कारण चर्चा में है। भारत का तीसरा सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य राजनीतिक रूप से स्थिर नहीं है। और, अब ऐसा लगता है कि यहाँ पर मौजूद राजनीतिक दलों के अलावा एक नये राजनीतिक विकल्प के लिए लोग सोचने लगे हैं।
नीति आयोग के आकलन के अनुसार बिहार देश का सबसे गरीब राज्य है। 2015-16 में किये गये एक आकलन के अनुसार बिहार का हर चौथा व्यक्ति गरीब है। नीति आयोग का आकलन मूलतः स्वास्थ्य, शिक्षा और रहन-सहन के मापदंड को आधार बनाके किया गया है। इन आधारों को आगे 12 श्रेणी में बांट करके आकलन किया गया है। इसमें पौष्टिकता, शिशु तथा किशोर मृत्यु दर, बूढ़े लोगों की देखरेख, स्कूल में समय, भोजन बनाने में लिये गए गैस (इंधन), टॉयलेट, पीने का पानी, बिजली, घर का समान तथा बैंक में जमा धनराशि को आधार माना गया है।
2018-19 के सर्वे के अनुसार बिहार में 15 से 59 वर्ष आयु के लोगों में सबसे कम साक्षरता पाया गया है। शिशु मृत्यु में बिहार दूसरे नंबर पर है। ये सारे आंकड़े इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि बिहार को एक बेहतर राजनीतिक विकल्प की जरूरत है।
1951 में जब देश में प्रथम पंचवर्षीय योजना लागू हो रही थी, उस समय बिहार भारत के उद्योग जगत की रीढ़ था। धीरे-धीरे हालात बदले और साथ में बिहार भी बदला। पिछड़ेपन के मामले में 1970 में बिहार का देश के राज्यों में नीचे से दूसरा स्थान था। उस समय देश का सर्वाधिक पिछड़ा राज्य ओडिशा था। 1993 तक बिहार आर्थिक मामलों में उसी स्थिति में बना रहा। जिस स्थिति में शेष भारत उससे 15-20 साल पहले था यानी अन्य राज्यों की तरक्की होती गई, किन्तु अब बिहार की गाड़ी बैक गियर में दौड़ने लगी थी।
90 के दशक तक बिहार को आते आते अपराध, नरसंहारों का दौर, नक्सलवाद के उभार का सामना करना पड़ रहा था। जिसके के कारण बिहार से लोगों के साथ उद्योगों और व्यापार का पलायन भी बढ़ा। वर्ष 2000 में बिहार से झारखंड के विभाजन से कथित समाजवादी, नैतिकताविहीन, जातिवादी, परिवारवाद, भ्रष्ट, दिशाहीन और जनता की गैरजिम्मेवार लालू प्रसाद यादव के राजद की सरकार में बिहार के पास सिर्फ तीन चीजें बची, आलू, बालू और लालू।
उस समय यानि यह 21वीं सदी की शुरुआत, यानी वर्ष 2000 के आस-पास की स्थिति पर ‘इकोनॉमिस्ट (Economist)‘ पत्रिका ने बिहार को ‘An Area Of Darkness‘ करार दिया था। जिसे नीतीश कुमार समेत भाजपा व अन्य पार्टियां जंगलराज बताती थी। लालू की सरकार के कार्यकाल के रफ़्तार पकड़ते ही राज्य में अपराधों, जातिय नरसंहारों में और भी उभार आया तथा शिक्षा, रोजगार, नौकरियों और व्यापार पर पार्टी और सरकार के हमले ने बिहार के सभी क्षेत्रों से पलायन, सभी राज्यों के मुकाबले उच्चतर स्तर पर पहुँच गया। यह लालू के शासन की असल तस्वीर थी, जिसे ही जंगलराज के नाम से जानते हैं।
वर्ष 1990 तक आते आते कृषि एवं इससे संबंधित क्षेत्र में केंद्र सरकार ने बिहार में प्रति व्यक्ति 172 रुपये खर्च किए। और इस समय पंजाब में 594 रुपये खर्च किए गए। अपने आंतरिक स्रोत से संसाधन जुटाने में भी बिहार सरकार लगभग विफल रही। वित्तीय वर्ष 1999-2000 में बिहार सरकार ने आंतरिक स्नोत से कुल 1,982 करोड़ रुपये जुटाए। और इन दिनों आंध्र प्रदेश सरकार की सालाना आय करीब 6,000 करोड़ रुपये थी। केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता राज्य के आंतरिक राजस्व के अनुपात में ही मिलती थी। इन तथ्यों से यह सवाल उठता है कि बिहार को ‘बीमारू’ राज्यों की श्रेणी में पहुंचा देने के लिए कौन-कौन से दल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जिम्मेदार रहे?
बिहार के 16वीं आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट (Bihar Econimic Survey 2021-22) के अनुसार, राज्य की प्रति व्यक्ति आय 2020-21 के दौरान 50,555 रुपये रही। भारत की बात करें तो देश की औसत प्रति व्यक्ति आय 2020-21 में 86,659 रुपये थी। आर्थिक सूचकांक में बिहार के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 2020-21 के सर्वे के अनुसार देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है। बिहार राज्य के ऊपर ऋण इसके सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) का लगभग एक तिहाई है। रिजर्व बैंक के अनुसार ऋण और सकल राज्य घरेलू उत्पाद का अनुपात पूरी तरह टाइट है। अधिक संख्या में सरकारी नौकरी, आज जिसकी बात हो रही है, वह कठिन है।
शराब बंदी के कारण राजस्व की हानि तथाकथित अवैध रूप से लिक होकर काले धन के रूप में कुछ खास लोगों के पास एकत्रित हो रही है, जिसका उपयोग विधानसभा चुनाव में दिखने को मिल सकता है।
आजादी के दो दशक बाद तक बिहार भारत का एक सुशासी राज्य रहा। लेकिन 80 के दशक के बाद से भ्रष्टाचार और तुष्टिकरण की राजनिति हावी हो गयी। परिणाम यह हुआ कि बिहार बीमारू राज्य बनता चला गया।
मण्डल कमीशन की राजनीति के बाद जाति और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति बढ़ती रही। नतीजतन, बिहार के सभी जाति, वर्ग और संप्रदाय से प्रतिभा का पलायन होता रहा। इसके साथ नैतिक मूल्यों में गिरावट, दलबदल, इलेक्शन में धन का प्रयोग के कारण समाज को विभक्त करना आसान होता चला गया।
दल सता में बने रहने के लिए गठबंधन बदलते रहे और आज बिहार के सभी रजनीतिक दल अपनी साख खो चुके हैं। बिहार के लोगों की रजनीतिक चेतना एक ऐसे नए राजनीतिक दल की तलाश में है जो एक नई सोच के साथ राष्ट्रीयता की बात कर कथित विकास से ऊपर उठकर आर्थिक और सामाजिक रूप से राज्य को शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, कृषि में आमूलचूल परिवर्तन की बात करे। उम्मीद किया जाय कि बिहार के लोगों द्वारा इसके लिए कोई पहल की जाएगी। – एस.के. सिंह