जब मैंने गुजरात में गिरे पुल की तस्वीर साझा की, तो कई लोगों ने पूछा — “क्या पुल सिर्फ गुजरात में ही गिरता है? क्या झारखंड में नहीं गिरता?”
तो चलिए इस सवाल का जवाब थोड़ा ठहर कर, सोच-समझकर देते हैं।

दरअसल, आज़ादी के 75 साल बाद भी अगर देश के अलग-अलग हिस्सों में 10-15 साल पुराने बने पुल गिर रहे हैं, तो यह किसी एक राज्य की विफलता नहीं है — यह पूरे सिस्टम की बीमारी है। ये बीमारी इंजीनियरिंग की नहीं, ईमानदारी की है।

हर बार जब पुल बनाने का टेंडर निकलता है, तो उसे बड़े ठेकेदारों को ही दिया जाता है। कागज़ पर तो ये ठेकेदार ‘मान्यता प्राप्त’ होते हैं, लेकिन हकीकत में इनमें से बहुतों को तकनीकी काम का कोई खास अनुभव नहीं होता। दरअसल इन ठेकेदारों को यह ठेका अनुभव के आधार पर नहीं, बल्कि सिस्टम से रिश्ते और ऊपर बैठे प्रभावशाली लोगों के संरक्षण के कारण मिलता है। ये वो चेहरे हैं जिन्हें सत्ता के गलियारों में अच्छी पकड़ होती है — जिनकी पीठ देश के बड़े पदों पर बैठे लोगों ने थपथपाई होती है। काम किसको मिल रहा है, यह तकनीक तय नहीं कर रही — यह सत्ता और संबंध तय कर रहे हैं।

और इसी भ्रष्ट सिस्टम का असली इंजन है — कमीशन। जितना बड़ा प्रोजेक्ट, उतना बड़ा हिस्सा ऊपर तक जाता है। टेंडर पास करवाने से लेकर बिल पास होने तक हर चरण पर कट मनी तय होती है। अब जब ठेकेदार को लाखों-करोड़ों “ऊपर” बाँटने होते हैं, तो वह ईमानदारी से काम कैसे करेगा? वह घटिया सामग्री लगाएगा, काम को जल्दबाज़ी में निपटाएगा, और जान बचाकर सिर्फ मुनाफा देखेगा। यही वजह है कि पुल बनते ही गिर जाते हैं, लेकिन फाइलों में सब कुछ सही होता है।

बड़ा ठेकेदार टेंडर लेता है — सिर्फ नाम के लिए। फिर वह काम को छोटे ठेकेदारों को “पेटी” में बेच देता है। वो छोटा ठेकेदार, फिर अपने मुनाफे के लिए काम में कटौती करता है। सीमेंट कम, रेत ज़्यादा। सरिया पतला, ढलाई अधूरी। ऊपर से दिखता है कि काम शानदार हुआ है। लेकिन नीचे जो काम होना था — गड्ढा खोदना, मिट्टी टेस्टिंग, नींव डालना — वो सब या तो आधा-अधूरा होता है या बिलकुल होता ही नहीं।

आप कभी गौर कीजिए — अंग्रेजों के जमाने के पुल आज भी खड़े हैं। 80-100 साल तक काम कर रहे हैं। ना वे डिजिटल सर्वे करते थे, ना ड्रोन उड़ाते थे। लेकिन ईमान और मेहनत का पुल कभी इतनी जल्दी नहीं टूटता। और आज? महज़ 10-12 साल में पुल टूट रहे हैं, बह रहे हैं, ढह रहे हैं।

और अब एक और अहम सवाल — आख़िर मोदी सरकार में ही पुल-पुलिया इतनी तेज़ी से क्यों गिर रहे हैं?
क्या ये संयोग है कि बीते 10 वर्षों में देश के अलग-अलग राज्यों में बार-बार पुल टूटने की घटनाएं सामने आ रही हैं — और ज़्यादातर मामलों में न कोई ज़िम्मेदारी तय होती है, न कोई बड़ी कार्रवाई?
विकास की बात तो होती है, लेकिन ज़मीन पर जो निर्माण हो रहा है, उसमें ना गुणवत्ता है, ना जवाबदेही। क्या ये सिर्फ लापरवाही है या एक सुव्यवस्थित लूट?

हर बार पुल गिरने के बाद एक जांच कमेटी बैठती है, प्रेस कॉन्फ्रेंस होती है, और कुछ समय बाद सबकुछ वैसे ही शांत हो जाता है जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं। असल दोषी बच जाते हैं, और अगली बार फिर वही ठेकेदार नए नाम से, नए इलाके में काम शुरू कर देता है। क्या यह व्यवस्था खुद एक संगठित ठगी नहीं है?

और सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि आज न जनता आवाज़ उठा रही है, न मीडिया इस पर टिककर सवाल पूछ रही है। सबकुछ जैसे सामान्य हो गया है — जैसे पुल गिरना अब एक ‘रूटीन घटना’ बन गया हो।
क्या लोकतंत्र में चुप रहना भी कहीं न कहीं गिरते पुलों का हिस्सा बनता जा रहा है?

असल सवाल यह नहीं है कि पुल कहाँ गिरा।
असल सवाल यह है कि किसने गिरने दिया?
किसके आदेश पर वही पुराने चेहरे, वही घोटालेबाज़ बार-बार टेंडर जीत जाते हैं?
क्यों आज भी पेटी कॉन्ट्रैक्टरों की चेन चली आ रही है?

अगर देश को सच में बनाना है, तो पुल गिरने पर अफसोस जताना काफी नहीं होगा। ये समझना होगा कि पुल कैसे गिरा, किसके कारण गिरा — और बार-बार इन्हीं सरकारों में क्यों गिर रहा है।
क्योंकि हर टूटी हुई पुल के नीचे कुछ ज़िंदगियाँ दफन होती हैं, और कुछ साजिशें भी।Deepak Ranjeet

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