
"हूल विद्रोह हमें अपनी जड़ों को संरक्षित करने की प्रेरणा देता है": प्रो एस एन मुंडा पूर्व कुलपति, ऐतिहासिक 'संथाल हूल' की 170वीं वर्षगांठ पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची में एक दिवसीय सेमीनार
“हूल विद्रोह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने और उन्हें संरक्षित करने की प्रेरणा देता है”: प्रो एस एन मुंडा पूर्व कुलपति। ऐतिहासिक संथाल हूल (1855–56) की 170वीं वर्षगांठ के अवसर पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची में “संथाल हुल: आदिवासी प्रतिरोध और विरासत की स्मृति” एक दिवसीय सेमीनार में विशिष्ट अतिथि प्रो एस एन मुंडा पूर्व कुलपति, डॉ. कुमार संजय झा, डॉ. बिनोद कुमार, प्रो. पीयूष कमल सिन्हा, प्रो. दिनेश नारायण वर्मा, डॉ. आर. के. नीरद, श्री संजय कृष्ण, डॉ. कमल बोस और डॉ. जय किशोर मंगल ने दिये वक्तव्य
रांची : इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, क्षेत्रीय केंद्र, राँची एवं डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के संयुक्त तत्वावधान में ऐतिहासिक संथाल हूल (1855–56) की 170वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक दिवसीय संगोष्ठी – “संथाल हूल: आदिवासी प्रतिरोध और विरासत की स्मृति”, का आयोजन किया गया। इस अवसर पर प्रख्यात विद्वानों, शोधार्थियों, तथा छात्रों ने सक्रिय सहभागिता की और आदिवासी प्रतिरोध की स्मृति को पुनः जागृत किया।
डॉ. कुमार संजय झा, क्षेत्रीय निदेशक, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, राँची ने कार्यक्रम का स्वागत भाषण प्रस्तुत करते हुए संथाल हूल के समृद्ध किंतु उपेक्षित इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि हूल केवल एक विद्रोह नहीं था, बल्कि आदिवासी अस्मिता, आत्मसम्मान और सांस्कृतिक संघर्ष का प्रतीक था। डॉ. झा ने यह भी उल्लेख किया कि यह मंच छात्रों और शोधार्थियों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगा, क्योंकि इसके माध्यम से इतिहास के उन गुमनाम नायकों की कहानियाँ सामने लाई जा सकेंगी जो अब तक इतिहास के पृष्ठों से ओझल रहे हैं।

डॉ. बिनोद कुमार, समन्वयक, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए ‘हूल’ शब्द की विविध व्याख्याओं पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि यद्यपि अधिकांश इतिहासकार 1857 को भारत के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत मानते हैं, लेकिन स्वतंत्रता की असली ज्वाला 1855 में संथाल हूल आंदोलन के साथ ही प्रज्वलित हो चुकी थी। उन्होंने भोगनाडीह गांव के सिदो, कान्हो, चांद-भैरव और फूलो-झानो जैसे वीर और वीरांगनाओं की बहादुरी को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हुए कहा कि इन अल्पज्ञात नायकों की वास्तविक भूमिका को इतिहास में समुचित स्थान मिलना चाहिए।
प्रो. पीयूष कमल सिन्हा ने संथाल हूल को लेकर एक संतुलित और गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि यद्यपि यह आंदोलन सीधे तौर पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से नहीं जुड़ा था, फिर भी यह औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध पहला संगठित जनप्रतिरोध था, जिसने आदिवासी चेतना और प्रतिरोध की दिशा तय की। उन्होंने औपनिवेशिक इतिहास लेखन की आलोचना करते हुए कहा कि अक्सर इतिहास को किसी विशेष विचारधारा या दृष्टिकोण से देखा जाता है, जिससे आदिवासी समाज की विविधता, पहचान और संघर्ष की वास्तविकता ओझल हो जाती है। श्री पीयूष कमल सिन्हा ने अपने वक्तव्य को और भी सशक्त बनाते हुए लोककथाओं का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि परंपराओं के अनुसार सिदो और कान्हो को एक दिव्य प्रेरणा प्राप्त हुई थी, जिसके पश्चात उन्होंने हूल आंदोलन का नेतृत्व किया। यह न केवल ऐतिहासिक घटनाओं को समझने में सहायक है, बल्कि आदिवासी समाज के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विश्वासों की भी गहराई से व्याख्या करता है।

प्रो. दिनेश नारायण वर्मा, पूर्व विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, वी.एस.के. कॉलेज-साहिबगंज ने संथाल हूल को भारतीय इतिहास का एक निर्णायक मोड़ बताते हुए कहा कि इसने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता की चेतना को जागृत किया। उन्होंने औपनिवेशिक इतिहास लेखन की आलोचना करते हुए कहा कि आदिवासियों को ‘बर्बर’ व ‘जंगली’ जैसे शब्दों से चित्रित किया गया, जबकि वास्तव में संथाल हूल एक स्वतःस्फूर्त जनक्रांति थी, जो आदिवासी अस्मिता और अधिकारों की रक्षा के लिए उभरी थी। प्रो. वर्मा ने बताया कि विद्रोह से पहले संथाल समाज ने सिंदूर-तेल बाँटने और बोंगा देवताओं के आह्वान जैसे सांस्कृतिक अनुष्ठानों के माध्यम से एकजुटता और संघर्ष की शक्ति अर्जित की। उन्होंने जोर दिया कि भारतीय इतिहास को उपनिवेशवादी दृष्टिकोण से मुक्त कर, आदिवासी संघर्षों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
डॉ. आर. के. नीरद ने इस ओर महत्वपूर्ण ध्यान आकर्षित किया कि आधुनिक समय में तकनीकी प्रगति और डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता के चलते ऐतिहासिक श्रोतों और तथ्यों तक पहुँच पहले की तुलना में कहीं अधिक सहज हो गई है। फिर भी, यह चिंता का विषय है कि उपलब्ध स्रोतों और तथ्यों में तथ्यात्मक शुद्धता और प्रामाणिकता का अभाव बना हुआ है। उन्होंने विशेष रूप से नवोदित शोधार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि इतिहास मात्र अतीत का लेखा-जोखा नहीं, बल्कि एक उत्तरदायित्व है, जिसे गहन अध्ययन, समर्पण और आलोचनात्मक दृष्टिकोण के साथ समझना आवश्यक है। उन्होंने आग्रह किया कि हमें इतिहास के प्रति उदासीन या लापरवाह नहीं होना चाहिए।
श्री संजय कृष्ण ने ध्यान आकर्षित किया कि यद्यपि संथाल हूल विद्रोह 1855 में अपने उग्र रूप में सामने आया, इसकी पृष्ठभूमि और हलचल 1853 से ही प्रारंभ हो चुकी थी। उन्होंने बताया कि इस तथ्य की पुष्टि उस कालखंड के अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखित रिपोर्टों, दस्तावेज़ों, पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों से होती है। श्री कृष्ण ने इस विद्रोह में भाग लेने वाले उन गुमनाम नायकों की ओर ध्यान दिलाया जिनका योगदान इतिहास के पन्नों में पर्याप्त रूप से नहीं आ पाया है, ऐसे अनेक अज्ञात स्वतंत्रता सेनानी सामने आ सकते हैं, जिन्होंने इस ऐतिहासिक जनआंदोलन को दिशा दी जैसे-छोटराय मांझी, उरजू मांझी, सोना मरांडी और सलोमी बेसरा जैसी महिला सेनानियाँ।
डॉ. कमल बोस, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची ने संथाल हूल की वीरता और भावना को काव्यात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत किया, जिसने श्रोताओं को गहराई से प्रभावित किया।
विशिष्ट अतिथि प्रो. एस. एन. मुण्डा ने अपने वक्तव्य में कहा कि संथाल हूल विद्रोह केवल एक सशस्त्र संघर्ष नहीं था, बल्कि यह जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक और आर्थिक अस्मिता को बचाए रखने का एक प्रेरणादायक उदाहरण भी है। उन्होंने कहा कि आज के समय में हूल विद्रोह से जुड़ी चेतना को आत्मसात करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार उस समय आदिवासी समाज ने अपने पारंपरिक जीवन, संस्कृति और संसाधनों की रक्षा के लिए संगठित होकर संघर्ष किया, उसी प्रकार आज भी हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत, ज्ञान परंपराओं और स्थानीय संसाधनों को बचाने के लिए सजग और सक्रिय रहना होगा। हूल विद्रोह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने और उन्हें संरक्षित करने की प्रेरणा देता है।
कार्यक्रम के अंत में डॉ. जय किशोर मंगल, सहायक प्रोफेसर, हो विभाग, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया।
इस संगोष्ठी ने संथाल हूल की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक-राजनीतिक विरासत को उजागर किया तथा मुख्यधारा के इतिहास लेखन में उपेक्षित आदिवासी प्रतिरोध आंदोलनों के प्रति एक नई दृष्टि और गंभीर विमर्श को प्रेरित किया।