
जब में खुद को देखती हूँ तो अपने आप को हमेशा एक स्री के रूप में परिभाषित नहीं करती। इसका यह मतलब नहीं कि मुझे औरत होने पर गर्व नहीं है, गर्व है। लेकिन ज्यादातर, मेरा ध्यान इस बात पर नहीं जाता। मैं खुद को बस एक व्यक्ति की तरह देखती हूँ शायद इसकी वज़ह मेरी परवरिश है; मेरे माता-पिता ने अपनी बेटियों और बेटों में कोई फर्क नहीं किया।
फिर भी, औरतों को हर मोड़ पर उनके स्त्री होने की याद दिलाई जाती है, और वह भी हमेशा सही कारणों से नहीं लेकिन मेरे लिए ऐसा मानने का एक अच्छा कारण यह है कि अगर मैं औरत न होती, तो शायद मैं उतनी स्वतंत्र और समर्थ न होती जो मैं आज हूँ। यहॉं स्वतंत्रता से मेरा मतलब यह नहीं कि पहले मुझे अपनी इच्छानुसार कुछ करने की आज़ादी नहीं थी। उस स्वतन्त्रता और सामर्थ्य की बात कर रही हूँ जो स्वयं के साक्षात्कार और आत्म-बोध से प्राप्त होती है।
औरत होना अपने साथ कई चुनौतियां लाता है, लेकिन यह उन्हें अनुभवों और संभावनाओं तक भी ले जाता है, जो सिर्फ एक औरत ही महसूस कर सकती है। एक औरत के तौर पर निभाई गई हर भूमिका ने मुझे और भी सशक्त बनाया है। औरतें भी जन्म से ही वैसे ही सशक्त होती हैं, जैसे पुरुष होते हैं। मैंने अपने लिए कभी किसी और को यह तय करने नहीं दिया कि औरतों को “सशक्त” बनाने की ज़रूरत है।
औरतों को जो सम्मान और समानता मिलनी चाहिए, उन्हें जो हक और अवसर मिलना चाहिए, दीजिए-फिर किसी को स्त्री के “सशक्तिकरण” की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।
आइए, हम सब मिलकर अंतर्रष्ट्रीय महिला दिवस मनाएँ !