राजस्थान में सरस्वती नदी की हालिया खोज के साथ वामपंथी और प्रगतिशील इतिहासकारों के झूठे आख्यानों का पर्दाफ़ाश हो गया है।

किसी भी देश की प्रगति में शिक्षा का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। भारत का स्वर्णयुग का इतिहास उच्च कोटि की शिक्षा और संस्कृति पर आधारित था। विडंबना यह है कि देश की स्वतंत्रता के बाद हमारे भविष्यकर्ताओं ने शिक्षा को न केवल अनदेखी की बल्कि इसे राजनीति और विचारधारा को थोपने का हथियार बना डाला। शुरूआती दौर के शिक्षा मंत्रियों का व्यक्तित्व और चरित्र भी इस बात का गवाह है। हद तो तब हो गई जब इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार को चलाने के लिए यहां के वामदलों का सहारा लिया। बदले में कम्युनिस्टों ने इनसे शिक्षा विभाग माँग लिया और यहीं से भारतीय मनोदशा को ग़ुलाम बनाने एवं आत्म स्वाभिमान को कम करने का एक सोची समझी रणनीति बनायी गई। कहना न होगा कि इस रणनीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय संस्कृति, सभ्यता और विरासत के प्रति लोगों में हीन भावना पैदा करना था। और यहीं से शिक्षा की संस्थागत और योजनाबद्ध तरीके से बर्बाद किया गया।

जो लोग खुद को वामपंथी और प्रगतिशील बताते हैं, वे सबसे बुरे सत्तावादी या फासीवादी हैं। देश की आबादी में उनकी संख्या भले ही एक छोटा सा हिस्सा हो, लेकिन उनका प्रभाव उनकी संख्या के विपरीत आनुपातिक है। वे देश के बुद्धिजीवियों, नौकरशाही, मीडिया और न्यायपालिका पर हावी हैं। वे सोशल मीडिया पर राजनीतिक बातचीत पर एकाधिकार करने की कोशिश करते हैं। “वामपंथी” इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को, खासकर औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल के दौरान, विकृत किया है। इस विकृति में मार्क्सवादी दृष्टिकोण को प्राथमिकता देना और भारतीय गौरव के काल को कम करके आंकना और कठिन समय को महत्व देना शामिल है। इन इतिहासकारों ने जानबूझकर वेद जैसे भारतीय धर्मग्रंथों के खिलाफ एक झूठे आख्यान को बढ़ावा दिया और इस तथ्य का खुलकर प्रचार किया कि आर्य आक्रमणकारियों के रूप में बाहर से भारत आए थे। उन पर प्राचीन भारत की प्रगति और उपलब्धियों को कम करके आंकते हुए, संघर्ष और पतन के काल को चुनिंदा रूप से दर्शाने का आरोप है।

भारत के राजस्थान में हाल ही में हुई पुरातात्विक खोजों से पौराणिक सरस्वती नदी के अस्तित्व के संकेत मिले हैं, जिसका उल्लेख ऋग्वेद जैसे प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने डीग जिले के बहाज गांव के नीचे 23 मीटर गहरी एक पुरा-चैनल की खोज की है, जिसके बारे में उनका मानना है कि यह सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग के साथ संरेखित है। यह खोज, 3,500 से 1,000 ईसा पूर्व की प्राचीन बस्तियों और कलाकृतियों की खोज के साथ, नदी के अस्तित्व और प्राचीन भारतीय सभ्यता को आकार देने में इसकी भूमिका का वैज्ञानिक प्रमाण प्रदान करती है। उल्लेखनीय है कि नदी में केवल जल का प्रवाह हीं नहीं होता बल्कि इसके साथ संस्कृति, सभ्यता, परंपरा और जीवन मूल्यों का भी पता चलता है। अतः इस दृष्टिकोण से ऋग्वेदिक कालीन सरस्वती नदी का भारतीय ज्ञान परम्परा में बहुत बड़ा योगदान है। यहीं कारण है कि इस पर न शोद्ध की गई न ही इसकी पुरातात्विक जाँच की गई। हद तो यह रही कि इसे भी मिथक बताया गया। कालांतर में इस नदी के विषय में बात करने वालों को न केवल अनदेखा किया गया बल्कि उनकी आलोचना की गई।

सरस्वती नदी के अस्तित्व, विशेषकर इसके सूखे हुए नदी तल का उपयोग कुछ लोग आर्य आक्रमण सिद्धांत के विरुद्ध तर्क देने के लिए करते हैं, यह सुझाव देते हुए कि वैदिक लोग (नदी से जुड़े) प्रस्तावित आक्रमण तिथि से बहुत पहले भारत में मौजूद थे। जबकि आर्यन आक्रमण सिद्धांत (AIT) यह मानता है कि इंडो-यूरोपीय भाषी लोग लगभग 1500 ईसा पूर्व भारत में आये थे, पुरातात्विक और भाषाई साक्ष्यों के साथ-साथ सरस्वती के अस्तित्व को भारत में एक सतत, स्वदेशी सभ्यता के विचार का समर्थन करने के लिए उद्धृत किया जाता है, जो एआईटी समयरेखा से पहले की है।

सरस्वती नदी का महत्व :

ऋग्वेद में सरस्वती नदी का प्रमुख उल्लेख मिलता है, जो हिंदू धर्म का आधार माने जाने वाले ऋचाओं का एक संग्रह है। ऋग्वेद में नदी के वर्णन से पता चलता है कि यह एक विशाल और शक्तिशाली नदी थी और इसका अस्तित्व प्रारंभिक वैदिक सभ्यता से जुड़ा है।

नदी का लुप्त होना :

माना जाता है कि सरस्वती नदी लगभग 1900 ईसा पूर्व सूख गई थी, जो कि आर्यों के आक्रमण की प्रस्तावित तिथि 1500 ईसा पूर्व से पहले की बात है। इससे पता चलता है कि वैदिक लोग, जो नदी का सम्मान करते थे, कथित आक्रमण से बहुत पहले भारत में मौजूद थे।

पुरातात्विक साक्ष्य :

उपग्रह चित्रों और पुरातात्विक उत्खनन से उत्तरी भारत में एक विशाल, सूखी नदी का पता चला है जो ऋग्वेद में सरस्वती नदी के वर्णन से मेल खाती है। यह साक्ष्य नदी के अस्तित्व का समर्थन करता है और यह बताता है कि इसके किनारों पर एक महत्वपूर्ण सभ्यता फली-फूली थी।

आर्यन आक्रमण सिद्धांत (एआईटी) को चुनौती :

एआईटी का सुझाव है कि इंडो-यूरोपीय भाषी भारत में आकर बसे और अपने साथ संस्कृत भाषा और वैदिक परंपराएँ लेकर आए। सरस्वती नदी के प्रमाण, आनुवंशिक निरंतरता और पुरातात्विक खोजों जैसे अन्य कारकों के साथ मिलकर, भारत में गहरी जड़ों वाली एक सतत सभ्यता का सुझाव देकर इस सिद्धांत को चुनौती देते हैं।

सभ्यता की निरंतरता :

पुरातात्विक और आनुवंशिक साक्ष्य भारत में सभ्यता की निरंतरता का संकेत देते हैं, जिसमें 1500 ईसा पूर्व के आसपास नई आबादी या संस्कृतियों का कोई महत्वपूर्ण आगमन नहीं हुआ। यह निरंतरता एआईटी के “आर्यों” द्वारा लाए गए एक बड़े जनसंख्या परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन के दावे का खंडन करती है।

स्कूलों में पढ़ाई जा रही इतिहास की किताबों की सामग्री को सही करने का समय आ गया है क्योंकि इसका उद्देश्य व्यापक रूप से भारतीयों का मनोबल गिराना था। संजय कुमार और एस.के. सिंह समर्थ बिहार

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(चित्र साभार Google)

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