
उम्मीद बाकि है
‘सप्ताह के कवि‘ श्रृंखला
(दलजीत सिंह कालरा की कविता)
जो सोचते हैं
मिल जाएगी छाँव
अपने अपने कबीलों
में बंटकर
भूल जाते हैं वो
कि बांटने वाले
कब सायादार होते हैं!
जो सोचते हैं
कि हम तो जर्रा हैं
जरा से बोलने से हमारे
कौन से
बदल जाएंगे हालात
भूल जाते हैं वो
कि जर्रे जर्रे से ही तो
बनी है दुनिया
जो सोचते हैं
इदारों को
बना के सीढ़ियां अपनी
पहुंच जायेंगे
अपने मंसूबो की
मंजिल तक
भूल जाते हैं वो कि
महकमे भी तो बने हैं
लोगों से
कोई तो बन के जुगनू
चमकेगा
स्याह रातों में ….!
थाम के रखना है
अपने अधिकारों
की रस्सी को
निकल ही जाएंगे
हम
इस भंवर से भी
अतीत के पन्नो में
एक उम्मीद
पढ़ी थी हमने
पस्त हुआ है
लोकतंत्र कई बार
पर परास्त नहीं …..!

(कवि छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में रहते हैं और पेशे से एक व्यवसायी हैं। लेकिन साहित्य और क्रिकेट में खास रुचि रखते हैं)
‘सप्ताह के कवि’ श्रृंखला की शुरुआत हम दलजीत सिंह कालरा की कविता से कर रहे हैं. इस श्रंखला में सप्ताह के घटनाक्रमों से जुड़ी कविता भी आमंत्रित है. कविता कृपया कर निम्न ई-मेल पर भेजें :1. nityanandgayen@newspcm.in 2. arunpradhan@newspcm.in