
“कवि और कविता” श्रृंखला में डॉ. प्रेरणा उबाळे की एक कविता ‘इमारतें बन जाती हैं, घर नहीं बनते’ …
“कवि और कविता” श्रृंखला में डॉ. प्रेरणा उबाळे की एक कविता ‘इमारतें बन जाती हैं, घर नहीं बनते’ …
■ इमारतें बन जाती हैं, घर नहीं बनते
पंछियों को रहने का आसरा मिलता है
आसरे को एक आसमान मिल जाता है
आसमान की छत लंबी होती है
सबको समा लेने की चाहत होती है
चाहतों की कश्तियां कभी डूबती नहीं हैं
कश्तियां कठिनाइयों से दूर हटती नहीं हैं
ईंट पर ईंट, मिट्टी से मिट्टी बंधी रहती है
दीवार से दीवार हमेशा सटी रहती हैं
नक्काशियां कितनी भी सुंदर क्यों ना हो
हाथों में दर्द ना हो तो निखरती नहीं हैं
जब तक हाथों से हाथ, कंधे से कंधे मिलते नहीं हैं,
तब तक इमारतें बन जाती हैं, घर बनते नहीं हैं। – डॉ. प्रेरणा उबाळे (रचनाकाल : 8 जून 2025)