जन सुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर द्वारा बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों ने सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर कलह पैदा कर दी है। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले, कई नेता अपने ही नेताओं पर आरोप लगाने के लिए इन आरोपों को उठा रहे हैं।

भाजपा और जदयू के लिए अपने नेताओं पर लगे आरोपों पर सक्रियता से कार्रवाई करने का समय आ गया है। बिहार की जनता ने भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और जंगलराज से मुक्ति पाने के लिए एनडीए गठबंधन को वोट दिया था, लेकिन अब समय आ गया है कि एनडीए कार्रवाई और जाँच के ज़रिए आरोपों से पर्दा उठाए।

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार की जनता को भाजपा के अप्रभावी और छोटे नेताओं के रहमोकरम पर छोड़ दिया है और आने वाले चुनावों में जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिशें उसे और आगे नहीं ले जा पाएँगी। बताया जा रहा है कि भाजपा केंद्र में अपनी सरकार बचाए रखने के लिए सांसदों की संख्या बढ़ाने में लगी हुई थी। भाजपा ने बिहार चलाने के लिए ऐसे नेताओं को चुना है जो पार्टी के लिए बोझ हैं और अपनी योग्यता के आधार पर वोट नहीं जुटा सकते। जदयू ने बहुत पहले ही अपना कार्यकर्ता खो दिया है और बिहार भाजपा का कार्यकर्ता हतोत्साहित और अपमानित महसूस कर रहा है।

यह स्थिति का विरोधाभास है कि बिहारी दूसरे राज्यों को संभालते हैं, लेकिन भाजपा बिहार में अपने कार्यकर्ताओं से योग्य और प्रभावी नेता ढूँढ़ने में कामयाब नहीं हो रही है। भाजपा की राजनीतिक नीति की संसदीय बोर्ड द्वारा जाँच होनी चाहिए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। बिहार की जनता ने लालू यादव की वापसी न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए उन्हें वोट दिया था और एनडीए इसे हल्के में ले रहा है। हल्के में लेने का यही रवैया पिछले लोकसभा में भाजपा को 240 सीटों तक सीमित कर गया था।

प्रशांत किशोर ने उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, भाजपा के दिलीप जायसवाल और मंगल पांडे, और जदयू से बिहार के ग्रामीण कार्य मंत्री अशोक चौधरी पर आरोप लगाए हैं। जिन लोगों पर प्रशांत किशोर ने आरोप लगाए हैं… उन्हें आगे आकर जवाब देना चाहिए। उन्हें स्पष्टीकरण देना चाहिए… क्योंकि वे ऐसा नहीं कर रहे हैं, पूरी पार्टी की छवि खराब हो रही है। आरोप केवल भ्रष्टाचार का ही नहीं बल्कि बिहार सरकार के संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति पर हत्या का आरोप लगाया गया है। हत्या और भ्रष्टाचार के बाद केवल ब्लात्कार का आरोप रह गया है । जाँच दो विषयों पर होनी चाहिए कि कैसे एक नेता हत्यारोपी होने के बावजूद सत्ता के शीर्ष पर पहुँच गया।

दूसरी ओर अशोक चौधरी जैसे नेता कैसे अरबपति बन गए, क्या इसकी जिम्मेदारी नीतीश कुमार की नहीं है? आख़िर नीतीश क्यों अपने प्रवक्ता के माध्यम से अशोक चौधरी को जवाब देने को कह रहे हैं। सीएम की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।

बिहार के राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार मंगल पांडेय सरकार के भ्रष्टतम मंत्रीयों में एक हैं । कोरोना काल में बिहार का कोविड मैनेजमेंट कोविड विश्व में सबसे ख़राब रहा है । इनकी सम्पत्ति की जाँच होनी चाहिए।

जहाँ तक बात पीके की है तो वे एक रणनीति के तहत क्रमवार अपना कदम आगे बढ़ा रहे हैं। पदयात्रा काल में भी उनको इन विषयों के बारे में जानकारी थी पर चुनाव नजदीक आने पर वे इसे पब्लिक कर रहे हैं। पुनः वे यह तो टाल ठोकर बता रहे हैं कि उन्हें पैसा कहाँ से आता है पर जिन लोगों ने पैसा दिया है उनका पीके की बिहार राजनीति में क्या interest है? पुनः आज कल पीके बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के Gen Z का उदाहरण बिहार के परिपेक्ष्य में दे रहे हैं । आख़िर इसका क्या मतलब है? इसे उन्हें स्पष्ट करना होगा?

उल्लेखनीय है कि बिहार की जानता स्वतंत्रता के बाद जब भी किसी सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे को लेकर सड़क पर आई है तो उसका कोई बहुत सकारात्मक परिणाम नहीं आया है। पीके कई बार तमिलनाडु के डीएमके का उदाहरण देते हैं। इस मॉडल की प्रशंसा करते हैं। क्या राष्ट्र विरोधी इस मॉडल की आवश्यकता बिहार को है? बावजूद इसके पीके ने जिस मुद्दे को उठाया है उसका जबाब तो मिलने ही चाहिए पर साथ ही पीके से यह भी पूछा जाना चाहिए कि वे चिराग पासवान की सार्वजनिक आलोचना क्यों नहीं करते हैं? अगर अशोक चौधरी ने बेटी के लिए टिकट खरीदा है तो बेचने वाला भी तो चिराग ही है । यहाँ पीके दलित पासवान वोटरों को साधते दिख रहे हैं।

तुष्टिकरण भाजपा की राजनीति का एक गंभीर मुद्दा है, और निकट भविष्य में यह उल्टी दिशा में जाएगा। भाजपा ने मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण से सम्मानित करने के पीछे जो कारण बताए हैं, वे तो उन्हें ही पता होंगे, लेकिन समझ से परे हैं… वोट बैंक की राजनीति के लिए तुष्टिकरण। और ​​अब भाजपा नेतृत्व अपने मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के सामने मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण देने के फैसले को सही नहीं ठहरा पा रहा है। इसी तरह, अगर भाजपा अपने नेताओं पर लगे पीके के आरोपों पर सक्रिय कार्रवाई नहीं करती है, तो वह उस राजनीति में अपनी ज़मीन और योग्यता खो देगी जिसकी वह लंबे समय से वकालत करती आ रही है…अगर पीके को आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में पर्याप्त सीटें नहीं मिलती हैं, तो क्या वह आश्वासन दे सकते हैं कि वह सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इन मुद्दों को उठाना जारी रखेंगे?- संजय कुमार और एस.के. सिंह, समर्थ बिहार (चित्र साभार गूगल)

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