
कवि और कविता श्रृंखला में डॉ प्रेरणा उबाले की कविता साँझ कहे
‘कवि और कविता’ श्रृंखला में डॉ. प्रेरणा उबाळे की एक कविता ‘साँझ कहे …’

साँझ कहे
साँझ पीली धूमिल में
अनमना-सा मन हुआ
बावरा-सा रंग भरकर
अपने भीतर झाँकता l
डूब सूरज हँस पानी में
खग उठे चहक डाली में
हो आया मन रुआँसा क्यों
देख बेला महक आँगन में l
हो धरा मानो साँवली
राधिका-सी सुकुमारी
कृष्ण-मुरारी की बाँसुरी
सुनत है क्यारी-क्यारी l
पत्ती डोलत हरी-भरी
मुसुकाई साँझ प्यारी
अनमने से मन को कहती-
खोल तू परतें अपनी
कुम्हलाती क्यों तू साँवरी,
चाँदनी-सी कोमल, सुहानी
जगमगा दे आभा सारी l
रात अंधेरी, घनी कुहरी
दूर होती नित्य री,
प्रातः अरुणिमा फैलाती
दुल्हन-सी नई नवेली l
घूमे चक्र रोज वसु का
तो क्या मनुष्य बता?
पलछिन सुख, पलछिन दु:ख,
यह नाम री जीवन का l
साँझ बतिया सुनकर मैं
झटक उदासी उठ पड़ी
निर्माण करना मुझे चिन्हार
चाहे चलना पड़े अंगार l
डॉ. प्रेरणा उबाळे (लेखिका, कवयित्री, अनुवादक, आलोचक, सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत), शिवाजीनगर, पुणे-411005, महाराष्ट्र) @Dr.PreranaUbale