
प्रगतिशील कबिता करने वालियों का यह रोना रहता है कि उन्हें कविता नहीं करने दिया जाता। हिन्दू धर्म ने और ब्राह्मणों ने उन्हें कबिता करने से रोका। मगर वे ऐसा कहते समय न ही उन्नाव की खगनिया का ध्यान रखती हैं और न ही वेदों की ऋषिकाओं का। वे महान गणितज्ञ लीलावती को भी संज्ञान में नहीं लेती हैं। खैर, मेरे पास तो ऐसी महिलाओं की शृंखला है क्योंकि वे ही मेरी आदर्श हैं और मेरी चेतना का केंद्र हैं।
अब बात फिर से कबिता करने वालियों की! यह बात आई कहाँ से महिलाएं कविता नहीं कर सकतीं? मीराबाई, ललद्द, अक्क महादेवी, कान्होपात्रा, सहजोबाई, दयाबाई सहित असंख्य महिलाएं हैं, जिनकी कविताएं हम लोग अभी तक पढ़ते और गाते रहते हैं, फिर इन कथित प्रगतिशील औरतों को कहाँ से यह दिखाई देता है कि उन्हें कबिता नहीं करने दिया गया!
फिर से एक बार हम चर्च और नन पर आते हैं। आप सभी चंडीगढ़ वाले बिशप के मामले में साथी नन के लिए लड़ाई लड़ रही नन सिस्टर लूसी शायद याद होंगी, या हो सकता है कि याद न भी हों। सिस्टर लूसी की याचिका को वेटिकन ने खारिज कर दिया था। उनपर आरोप थे कि उनकी जीवनशैली “नन” जैसी नहीं है क्योंकि तमाम बातों के अतिरिक्त उन्होनें अपनी कविताओं की किताब भी छपवाई थी। उन्हें निष्कासित कर दिया गया था। मगर कबिता न लिखने का हिंदुओं पर आरोप लगाने वाला पूरा प्रगतिशील वर्ग एकदम शांत रहा था। सिस्टर लूसी अभी तक लड़ाई लड़ रही हैं, मगर उस लड़ाई के विषय में ज्ञात है भी नहीं कुछ।
अब आते हैं Through the Narrow Gate में Karen Armstrong कान्वेन्ट की अपनी यात्रा के अनुभवों पर। Karen लिखती हैं कि उन्हें सिलाई करनी नहीं आती है और उन्हें अच्छा भी नहीं लगता है सिलाई करना। और मदर उन्हें बार-बार कहती हैं कि “मैनुअल वर्क हमें गॉड के लिए फ्री समय देते हैं।“ Karen कहती हैं कि हाथ के काम कितने थकाने वाले होते हैं और वे पढ़ना कैसे मिस कर सकती हैं? वे लिखती हैं कि “I never thought I’d have to give that up or realized how much I’d miss it. I remember asking Mother Albert whether I could take a copy of Hopkins’ poetry out of the library. She was furious.”
अर्थात जब थकान वाले काम से थक कर उन्होनें मदर से यह पूछा कि क्या वे हॉपकिंस की कविता लाइब्रेरी से ले सकती हैं तो मदर ने गुस्से में कहा कि “Nuns don’t waste their time indulging in poetry!” अर्थात नन अपना समय कविता में बर्बाद नहीं करतीं।
अर्थात “अच्छी लड़कियां अपना समय कविता में बर्बाद नहीं करती हैं” विचार भारतीय मानस का नहीं है। यहाँ तो विवाह सूक्त ही सूर्या सावित्री ने लिखे हैं। यहाँ तो हम आज भी “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो” गाते हैं। वहाँ पर विद्रोह की कविता उचित है क्योंकि वहाँ पर रोका जाता है, “अच्छी लड़की” को कविता कहने से मगर यहाँ पर नकलची बंदरियाँम क्यों विद्रोह की कबीताऐं रच रही हैं, जबकि यहाँ तो कविता रचने की हमेशा से स्वतंत्रता थी?
तभी कथित प्रतिरोध की नकली कबिताऐं उधार की पीड़ा का विकृत रूप है और अपने आप में विकृतियाँ हैं, जिन्हें सिरे से खारिज किया जाना चाहिए। ऐसी कबीताऐं किसी भी मातापिता को लिखने नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ये भारतीय नहीं हैं। और भारत में नकलची बंदरियाँ हैं ये कथित फेमिनिस्ट लेखिकाएं क्योंकि ये स्वयं में विकृत हैं और विकृतियाँ ही फैला रही हैं।
मैं आदरणीय Kusumlata Kedia कुसुमलता दीदी की आभारी हूँ कि मैं कुछ समझ पा रही हूँ। उम्र के इस पड़ाव में ही सही, काफी कुछ समझ आने लगा है। – सोनाली मिस्र
