Goswami Tulsi Das said "Tribhuvan Sai (Lord Ram) on the throne", and the consecration of Ram Darbar in Ayodhya : Ram Narayan Singh

Goswami Tulsi Das said "Tribhuvan Sai (Lord Ram) on the throne", and the consecration of Ram Darbar in Ayodhya : Ram Narayan Singh

२०२५ के गंगा दशहरा के शुभ मुहूर्त में अयोध्या के राम जन्म भूमि मंदिर में राम दरबार की प्राण प्रतिष्ठा हो गई। यह हम जैसे सनातनी हिंदुओं के लिए ऐतिहासिक दिन था। दरबार के विग्रह की झांकी का दर्शन मेरे लिए रोमांचकारी था। राम दरबार की फोटो सभी सनातनियों के पूजा घर से ले कर ड्राइंग रूम में मिल जाएगी। राम लला, दूल्हा राम और वनवासी रावण विजयी राम के भी विग्रह फ़ोटो भी काफ़ी प्रचलित हैं।

राम दरबार के फ़ोटो विग्रह के नीचे राम पंचायत भी लिखा मिल जाता है। तमाम अखाड़े और धार्मिक स्थानो के नाम के साथ पंचायती शब्द भी जुड़ा रहता है। राम दरबार भी पंचायती है। राम सीता अभिन्न रूप से सरपंच हैं। पंचायत के अन्य चार सदस्य शत्रुघ्न, भरत, लक्ष्मण और हनुमान जी महाराज हैं। पंच ही व्यवस्था संचालन के गुणी कर्ता धर्ता होते हैं सरपंच तो सभी गुणी पंचों के बीच समन्वय स्थापित करने वाला निर्गुण निराकार ब्रह्म ही होता है।

निर्गुण निराकार अकर्ता ब्रह्म के सरपंची में संचालित यह राज्य व्यवस्था कार्ल मार्क्स के “द्वंद्वात्मक भौतिक विकास” के चरम समन्वय (सिंथेसिस) वाले राज्य विहीन समाज व्यवस्था, जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, से बेहतर है। यहाँ राज्य नहीं समाप्त होता। यहाँ राजा, सरपंच रूप में निर्गुण निराकार अकर्ता भाव से राज्य संचालन करता है। वह सर्वसत्ता संपन्न तानाशाह नहीं होता अपितु प्रजा का रंजन करने वाला, भरण पोषण करने वाला तथा समाज पुरुष के सभी अंगों का समान भाव से पालन पोषण करने वाला मुख रूपी मुखिया होता है- मुखिया मुख सो चाहिए।

चारों भाई केवल महाराज दशरथ के ही चार पुरुषार्थ नहीं हैं बरन वे पूरे समाज के चार पुरुषार्थ हैं। शत्रुघ्न अर्थ हैं, भरत धर्म हैं, लक्ष्मण काम और राम मोक्ष। एक दूसरे प्रकार से सभी एक ब्रह्म के ही विभिन्न स्वरूप हैं और इसी लिए मोक्ष की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। शत्रुघ्न सालोक्य मोक्ष, भरत सारूप्य मोक्ष, लक्ष्मण सामीप्य मोक्ष और राम सायुज्ज मोक्ष हैं। दो दो की जोड़ी भी है। अर्थ और धर्म की तथा काम और मोक्ष की। धर्मानुगामी शत्रुघ्न रूपी अर्थ, धर्म स्वरूप भरत के साथ और रामानुगामी काम रूपी लक्ष्मण, मोक्ष रूपी राम के साथ। अर्थ की सार्थकता दान में है। यज्ञ में है। वितरण में है। शत्रुघ्न की पत्नी श्रुति कीर्ति हैं। श्रुति यानी वेदों की कीर्ति। वेद का मुख्य तत्व यज्ञ सभी के अंशों की हवीसा का यज्ञ कुण्ड में समर्पण है। अर्थ की सार्थकता चुपचाप धर्म के अनुसरण में है। पूरे मानस में शत्रुघ्न एक शब्द नहीं बोलते। जहाँ अर्थ बोलता है वहाँ अनर्थ होता है। वह दिखावे के लिये नहीं है। गुप्त दान ही सर्वोत्कृष्ट है।

शत्रुघ्न चुप हैं परन्तु निष्क्रिय नहीं। वे मंथरा पर कठोर प्रहार कर लोभ रूपी रक्त विकार से उसे विरक्त कर देते हैं। अर्थ शुभ लाभ से अर्जित किया जाय, कुटिल लोभ के रक़्त विकार से मुक्त रहा जाय और इसका उपयोग दान पुण्य में कर भगवान के लोक को प्राप्त कर सालोक्य मोक्ष की स्थिति में पहुँचा जाय। दान पुण्य ही सालोक्य मोक्ष का साधन है।

भरत मूर्तिमान धर्म हैं। धर्म और भगवान अनोन्याश्रित हैं। भरत राम की ही अनुहारी। दोनों साँवले सलोने हैं। भगवान तो अकर्ता हैं। धर्म ही उनका कृतित्व है। धर्म को राज पद नहीं चाहिए उसका आराध्य राम पादुका है। धर्म रूपी भरत अयोध्या के मोह रूपी कैकेयी के पुत्र मोह पर निर्मम प्रहार कर उन्हें राम प्रेम में स्थापित करते हैं। वे राम विछोह में विछुद्ध पूरे अयोध्या को चित्रकूट ले जाकर राम प्रेम पीयूष का अमृत पान कराते हैं। बिन देखे रघुनाथ पद जिय की जरनी न जाय। धर्म सबको धारण करता है, सबकी भलाई। उसका मूल सबके प्रति करुणा और दया है। गांधी हिन्द स्वराज में इसी धर्म के लिए तुलसी को उद्धृत करते हैं। दया धर्म को मूल है, पाप मूल अभिमान। तुलसी दया न छोड़िये जब लो घट में प्राण।। गांधी का राम राज्य इसी धर्म पर अधिष्ठित है।

भरत चित्रकूट से राम पादुका पूर्ण श्रद्धा भक्ति से सर पर उठा कर अयोध्या लाते हैं और उसकी चौदह साल उपासना और साधना करते हुए पूरे अयोध्या का वह मानसिक परिष्कार करते हैं जहाँ से मंथरा का कुटिल लोभ, कैकेयी का मोह आदि निर्मूल हो जाता है। महाराज दशरथ का कैकेयी के प्रति काम वासना, कैकेई का पुत्र मोह, मन्थरा का कुटिल लोभ आदि सभी राम के वनवास और राम राज्य की स्थापना के विघ्न के मूल में थे। राम राज्य के लिए उपयुक्त भाव भूमि का निर्माण भरत की १४ वर्ष की राम पादुका की आराधना का प्रतिफल है। धर्म साधना ही राम राज्य ला सकता है।

कोई राजा राम राज्य नहीं ला सकता। दसरथ से महान राजा कौन हो सकता है? वे भगवान के पिता थे तो भी व्यक्ति के नाते उनमें भी कमियाँ थी। तुलसी बड़ी निर्ममता से कहते हैं –देखौ काम प्राताप बड़ाई। तो जब उन्होंने त्रेता में राम राज्य लाने की उद्घोषणा पूरे राजदरबार में कर उसे १४ साल दूर कर दिया तो आज के राजा उसे कई गुना ज़्यादा दूर करेंगे।

आचार्य चाणक्यभगवान स्वयं राम राज्य नहीं ला सकते। राम स्वयं अकर्ता ब्रह्म हैं। वे राज सिंहासन पर बैठने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे राम राज्य नहीं ला सकते हैं। हो सकता तो द्वापर में पूर्ण ब्रह्म कृष्ण भी राम राज्य ला देते। परंतु त्रेता के भरत जैसा कोई द्वापर में नहीं है। धर्मराज युधिष्ठिर और धर्ममूर्ति भरत की तुलना हो ही नहीं सकती। इसीलिए त्रेता में भरत आज के समय में चाणक्य, स्वामी रामदास, गाँधी, जय प्रकाश और मूर्तीमान राष्ट्र साधना रूपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ RSS ही राम राज्य के कारक हो सकते है। वे स्वयं सिंहासन पर बैठने की साधना नहीं करते हैंl

राज सिंहासन पर विराजमान राजा के सर के ऊपर सुंदर छत्र उसके राजा होने का उद्घोष है। प्रयाग के संगम रूपी राज सिंहासन के ऊपर अक्षय बट का विशाल क्षत्र ही उसे तीर्थ राज बनाता है। राजपाट जाने के योग को ज्योतिष में क्षत्र भंग योग कहते हैं। तुलसी मानस के राज्याभिषेक में जब कहते हैं कि सिंहासन पर त्रिभुवन साईं तो आगे स्पष्ट करते हैं कि “लिए क्षत्र चामर ब्यजन धनु असि”/ “भरतादि अनुज बिभीसनादी

तुलसी का यह क्रम विन्यास अलौकिक है। पहले क्रम का क्षत्र स्पष्टतः पहले क्रम के धारक भरत के हाथ में है। राम राज्य का क्षत्र धर्म मूर्ति भरत के हाथ में। राम राज्य का क्षत्र धर्म के हाँथ में स्थापित हो कर ही राज सिंहासन को छाया दे सकता है। यह धर्माधिस्थित राज्य है। धर्म निरपेक्ष नहीं। यही तुलसी, गांधी और पूरे सनातन का राम राज्य है।

भरत राम राज्य का क्षत्र उठा कर केवल सिंहासनारूढ़ राम के ऊपर ही क्षत्र की छाया नहीं करते परन्तु वे स्वयं अपने और सभी राज दरबार के लोगों को राम की क्षत्र छाया में ला देते हैं। पूरी अयोध्या राम की क्षत्र छाया में भरत के हाँथो आ जाती है। भरत मूर्तिमान धर्म हैं। धर्म की जय हो। जय हो।

अयोध्या में राम जन्म भूमि मंदिर में स्थापित राम दरबार में राजा राम के क्षत्र का अभाव और भक्ति भाव में डूबे, भगवान के चरणों में बैठे भरत के विग्रह की तुलसी से विसंगति खटकती है। युग तुलसी राम किंकर जी के दैनिक प्रार्थना के धर्म मूर्ति भरत तो क्षत्र उठाये हुए सिंहासन के पीछे खड़े हैं। धर्म तो हमेशा भगवान को अपने आगे रखता है। वह स्वयं पीछे खड़े होकर सबको भगवान का दर्शन कराता है। भगवान की कृपा दृष्टि में लाता है। भगवान की क्षत्र छाया प्रदान करता है। इसी लिये भरत सारूप्य मोक्ष हैं जिसे प्राप्त कर साधक भगवान जैसा हो जाता है। राम की अनुहारी। साधन करुणा और दया। धर्म का मूल दया। भगवान तो करुणासिंधु हैं। राम नारायण सिंह

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