
मैं एक शादीशुदा औरत हूं - शाहरुख हैदर
कविता नारीवादी नहीं होती है। स्त्री केन्द्रित कविताएँ स्त्री की प्रत्येक समाज-समुदाय में वर्तमान स्थिति को सामने रखती है। इसी क्रम में ईरान में लोकतान्त्रिक सरकार की जगह इस्लामिक नियंत्रण वाली सरकार आयी और ईरान में महिलाओं की स्थिति अचानक से बदल गई। इस्लामिक नियमों की व्यवस्था में ईरानी महिलाओं का एक आन्दोलन और उस पर धार्मिक पुलिस का अत्याचार अभी हाल में हमलोगों ने देखा जो “हिजाब विरोधी” आन्दोलन था और महिलाओं ने अपने बाल काटे और हिजाब को आग में स्वाहा किया। यह स्थिति लगभग प्रत्येक समाज-समुदाय में है, भारत में भी है। अपने यहां का हाल देख लीजिए। हर रोज गैंगरेप की खबरें, दुष्कर्म के बाद हत्या और छेड़खानियां आम हैं। ऐसे में विडम्बना है कि भारत में इस्लामिक समुदाय अपनी बच्चियों और महिलाओं को हिजाब में ही सुरक्षित रखने के लिए जान की बाजी लगाता है।
ईरान की इसी हालात में ईरानी महिलाओं की स्थिति पर कई कविताएँ, गीत, पेंटिंग आदि सामने आते रहे हैं। इसी क्रम में आज पढ़ते हैं ईरान की शायरा-शाहरूख हैदर की नज्म -”मैं एक शादीशुदा औरत हूं”…
मैं एक शादीशुदा औरत हूं – शाहरुख हैदर
मैं एक औरत हूं…
ईरानी औरत
रात के आठ बजे हैं
यहां ख़याबान सहरूरदी शिमाली पर
बाहर जा रही हूं रोटियां ख़रीदने
न मैं सजी धजी हूं
न मेरे कपड़े ख़ूबसूरत हैं
मगर यहां
सरेआम
ये सातवीं गाड़ी है…
मेरे पीछे पड़ी है
कहते हैं
शौहर है या नहीं
मेरे साथ घूमने चलो
जो भी चाहोगी तुम्हें ले दूंगा.
यहां तंदूरची है…
वक़्त साढ़े आठ हुआ है
आटा गूंध रहा है
मगर पता नहीं क्यों
मुझे देखकर आंख मार रहा है
नान देते हुए
अपना हाथ
मेरे हाथ से मिस कर रहा है!!
ये तेहरान है…
सड़क पार की तो
गाड़ी सवार मेरी तरफ आया,
क़ीमत पूछ रहा है,
रात के कितने ?
मैं नहीं जानती थी
रातों की क़ीमत क्या है!!
ये ईरान है…
मेरी हथेलियां नम हैं
लगता है बोल नहीं पाऊंगी
अभी मेरी शर्मिंदगी और रंज का पसीना
ख़ुश्क नहीं हुआ था कि घर पहुंच गई.
इंजीनियर को देखा…
एक शरीफ़ मर्द
जो दूसरी मंज़िल पर
बीवी और बेटी के साथ रहता है
सलाम…
बेगम ठीक हैं आप ?
आपकी प्यारी बेटी ठीक है ?
वस्सलाम…
तुम ठीक हो? ख़ुश हो ?
नज़र नहीं आती हो ?
सच तो ये है
आज रात मेरे घर कोई नहीं
अगर मुमकिन है तो आ जाओ
नीलोफ़र का कम्प्यूटर ठीक कर दो
बहुत गड़बड़ करता है
ये मेरा मोबाइल है
आराम से चाहे जितनी बात करना
मैं दिल मसोसते हुए कहती हूं
बहुत अच्छा अगर वक़्त मिला तो ज़रूर!!
ये सरज़मीने-इस्लाम है
ये औलिया और सूफ़ियों की सरज़मीन है
यहां इस्लामी क़ानून राइज हैं
मगर यहां जिन्सी मरीज़ों ने
मादा ए मन्विया (वीर्य) बिखेर रखा है.
न दीन न मज़हब न क़ानून
और न तुम्हारा नाम हिफ़ाज़त कर सकता है.
ये है
इस्लामी लोकतंत्र…
और मैं एक औरत हू...
मेरा शौहर
चाहे तो चार शादी करे
और चालीस औरतों से मुताअ
मेरे बाल
मुझे जहन्नुम में ले जाएंगे
और मर्दों के बदन का इत्र
उन्हें जन्नत में ले जाएगा
मुझे कोई अदालत मयस्सर नहीं
अगर मेरा मर्द तलाक़ दे
तो इज़्ज़तदार कहलाए
अगर मैं तलाक़ मांगू
तो कहें
हद से गुज़र गई, शर्म खो बैठी.
मेरी बेटी को शादी के लिए
मेरी इजाज़त की दरकार नहीं
मगर बाप की इजाज़त लाज़िमी है.
मैं दो काम करती हूं.
वह काम से आता है आराम करता है
मैं काम से आकर फिर काम करती हू.
और उसे
सुकून फ़राहम करना मेरा ही काम है.
मैं एक औरत हूं…
मर्द को हक़ है कि मुझे देखे
मगर ग़लती से अगर
मर्द पर मेरी निगाह पड़ जाए
तो मैं आवारा और बदचलन कहलाऊं.
मैं एक औरत हूं…
तमाम पाबंदी के बाद भी औरत हूं
क्या मेरी पैदाइश में कोई ग़लती थी ?
या वो जगह ग़लत थी जहां मैं बड़ी हूई ?
मेरा जिस्म
मेरा वजूद
एक आला लिबास वाले मर्द की सोच और
अरबी ज़बान के चंद झांसे के नाम बिका हुआ है.
अपनी किताब बदल डालूं
या यहां के मर्दों की सोच
या कमरे के कोने में क़ैद रहूं ?
मैं नहीं जानती…
मैं नहीं जानती
कि क्या मैं दुनिया में
बुरे मुक़ाम पर पैदा हुई हूं
या बुरे मौके पर पैदा हुई हूं.
नीचे दिए गए लिंक पर इस नज़्म का पाठ सुना जा सकता है…
https://fb.watch/nZxxyyiqAh/?mibextid=Nif5oz