
कवि और कविता श्रृंखला में डॉ. प्रेरणा उबाळे की कविता “देस मेरा.. देस मेरा…”
■ देस मेरा… देस मेरा… – डॉ. प्रेरणा उबाळे
“बोलो भैया, क्या चाहिए ?”
“एक झंडा दे दो भैया
बच्चे के लिए !
कल इस्कूल जाएगा,
सीने पे लगाएगा
गर्दन उठाए सलाम करेगा
कुर्बानी को याद करेगा।
जिंदगी रखी थी हथेली पर
लाठियां सही, अनशन हुए
लहू बह गया पाटों में
फिर भी मुस्कान थी आँखों में
मेरी आजादी के लिए लड़े थे वो
‘देस मेरा, देस मेरा’ कहकर मरे थे वो

पर सोचता हूँ
आज कैसे करूँ बयान
खुली आजादी की गुलामी को
कैसे कहूँ
टुकडों में दिख रहा
देस मेरा, देस मेरा…
जो बहा खून, मिटाया गया
मन का जुड़ाव काटा गया
देस को मेरे बाँटा गया,
भाषा, बोली, नगर के
जाति, धर्म, सहर के
बँटवारे चारों ओर बिछे ।
महापुरुषों का नाम लेना पाप हो गया
बेजान पुतलों में विचारों को कैद कर दिया
पर मैं सिखाउँगा अपने बच्चे को
न उठा सिर्फ गर्दन अपनी
न याद कर महज कुर्बानी
मुठ्ठीभर चमक उनके आँखों की,
समा ले अपने दिल में
रोशन कर दे एक चिराग को
संभालकर फिर से अपने देस को ।
क्या करोगे अगर
नई गुलामी में फँस जाओगे ?
निजीकरण की नई बॉर्डर
अब खिंच गई है देस में
बौद्धिक अराजकता तो
डगर डगर पर
निर्णयों की सख्ती
कलम की जब्ती
ये लड़ाई दिमाग की l
नहीं बहेगा लहू यहाँ
फिर भी जकड़ेगी जंजीर तुम्हें l
सूरजमुखी के अवगुण ने
घेरा है इन्सान को
नई गुलामी, नए हथकंडे
अतीत होती आजादी ।
आँखें खोलो
झंडे को सलाम करना
सिर्फ मकसद नहीं बाबू तेरा
देस मेरा कहने के लिए
दुनिया में लहराओ तिरंगा ।
जिंदा कर अपने मन को
उठ, खड़ा हो जा..
फिर से बना दे
ये देस मेरा, ये देस मेरा…
– डॉ. प्रेरणा उबाळे (13/8/2020)