
Ekta-Prakash
‘सप्ताह के कवि’ कॉलम में इस सप्ताह कवयित्री एकता प्रकाश की तीन कविताएँ
सप्ताह के कवि में इस बार युवा कवयित्री एकता प्रकाश की तीन कविताएँ पढ़िए। इनकी कविताओं में एक बेचैनी है। मकान कैसे टूटता है ? कई तरह से टूटता है जैसे टूटता है मनुष्य, कई बार। इस कविता में एक मानवीय पीड़ा है, जिसे कवयित्री ने गहराई से महसूस किया है। मकान तो एक बिंब है, कविता में आदमी के टूटने का दर्द है।
‘सयानी होती बेटियां’ कविता में हमारे समाज की हक़ीकत का बयान है। यह एक बेटी ने गहराई से महसूस करते हुए अभिव्यक्त किया है।
लगभग हर नये कवि में प्रकाशित होने की आतुरता एक सामान्य और स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह होना भी चाहिए खुद के लिखे को परखने का यह भी एक प्रक्रिया है। प्रकाशित होने पर उत्साह और मनोबल बढ़ता है, अपनी लेखनी पर भरोसा बढ़ता है। लेकिन जिम्मेदारी भी बढ़ती है।
एकता प्रकाश लगातार लिख रही हैं, लेकिन किसी भी नये कवि / लेखक के लिए बेहतर और जरूरी भी है कि वह लगातार अपनी रचनाओं पर सोचे। हर कवि को अपनी लिखी हुई कविताओं को बार-बार पढ़ना चाहिए एक पाठक बन कर।
एकता प्रकाश हिंदी साहित्य की छात्रा हैं और लगातार पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं। उम्मीद है कि समय के साथ वे और बेहतर रचेंगी। उन्हें शुभकामनाएं !
-नित्यानंद गायेन (e-mail :- nityanand.gayen@gmail.com / blogs:- http://merisamvedana.blogspot.in/ )
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1. चुप्पी के बीच
बताना है कि एक-दूसरे का चेहरा देखते
हम दोनों की चुप्पी के बीच
हंसी फुट पड़ती है
बिल्कुल ठीक उसी तरह
जैसे फुट पड़ता है धरती में अंकुर।
सहमतियों-असहमतियों की लड़ाई में
हमने चुप रहना नहीं सीखा
करते हैं बातें
टोकते हैं जब तब एक-दूसरे को।
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2. मकान का टूटना
दीवार के बदरंग हिस्से
उसमें समायी नमी
छिटकते सीमेंट
गिरते भर-भर मिट्टी
किवाड़ों में घुन
चौखटों पर मट्टा
चींटियां खा रही लकड़ियों को
मकान को टूटते बिखरते
ऐसे भी देखा है मैंने
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3. सयानी होती बेटियां
सयानी होती बेटियां
लिपट नहीं पाती
पिता से पहले की तरह…
भागकर पिता से
चिपक गए किसी बात पर
अब ऐसा नहीं होता।
दादी कहती है- मां से
सयानी होती बेटियों को सिखलाओं
कंधों पर दुपट्टा रखना
शरीर से अलग हटकर बात करना
उस दिन हमने जाना,उम्र से पहले बड़ा होना।
याद है कुछ महीनों पहले
उलांकते हुए पिता के कान में
कैसा मारा था, उनके कानों में आहिस्ते से
फूंक की कूंक।
और फुसफुसाते हुए कुछ कहा था
फिर वह उस गुदगुदी के एहसास
से ज़ोर से हंसे थे
उनका हंसना देखकर हम भी।
बड़े होते भाई के साथ खेलने कूदने से
हर बार टोका गया है
बस कहा गया
साथ बैठने पढ़ने को।
दादी
भाईयों के साथ कबड्डी,
लंगड़ी, छुआ छुई खेल खेलने,
साथ दौड़ने को मना करती थी
एक दिन तो देख लिया था
मना करने पर भी
हम सब कूदकर एक दूसरे को पकड़ रहे थे
तब वे हमें मारने दौड़ी थी
मारे डर के हम
छुपकर बैठ गये थे।
धीरे-धीरे
पिता के पास जाना बहुत कम होता गया
पास बैठना,
बातें करना
धीरे-धीरे कम होता गया
और अब तो
ऐसा बिलकुल नहीं होता..!!
पहले नींद आ जाने पर
सो जाती थी पिता के पास ही
लिपटी थी कई-कई बार
कितनी ही बातों पर
वो सब कुछ अब
याद आता है…
अब
हम सब
बड़े हो गए हैं
आज मेरी विदाई है!
आज फिर
लिपटी हूं
पिता और भाइयों से … !!
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