
जागो बिहार जागो पार्ट- 4, बख्तियारपुर का नाम बदलो "आचार्य राहुल भद्रसेन नगर" करो
बिहार की राजनीति आज ऐसे मोड़ पर खड़ी है जिसमे यहाँ के जागरूक मतदाता राजनितिक दलों के चाल, चरित्र और चेहरा का विश्लेषण करने में लग गए हैं, क्योंकि २०२४ का लोकसभा चुनाव नजदीक आ गया है। देश के स्तर पर भाजपा की सरकार ने मोदीजी के नेतृत्व में २०१४ से लेकर अबतक मुख्या धारा की राजनीति की और तुष्टिकरण को मात देते हुए कई कारगर कदम उठाये, जिसमे कश्मीर से धारा ३७० का उन्मूलन, तीन तलाक का खात्मा सहित राम मंदिर का निर्माण कार्य शामिल है। इसके साथ ही भाजपा की सरकार ने कांग्रेस की अपेक्षा लोकतान्त्रिक मूल्यों को बनाये रखने में राजनितिक दूरदर्शिता का परिचय दिया और कांग्रेस की तरह राज्य सरकारों को वर्खास्त नहीं किया।
लेकिन इसके उलट भाजपा ने बिहार में अपने को विकास के बजाय जातिवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने में और दलों के साथ अपना नाम शुमार किया। भाजपा द्वारा बिहार में जातिगत जनगणना का समर्थन इस बात की पुष्टि करता है। जिस प्रकार कांग्रेस ने पुरे देश में मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति की उसी प्रकार भाजपा ने बिहार में जातीय तुष्टिकरण की राजनीति की है। वाम दलों के बाद भाजपा का ही कैडर सुसंगठित माना जाता है, लेकिन बिहार में पिछले कुछ वर्षों से भाजपा की जातीय तुष्टिकरण की राजनीति से इसके कार्यकर्ता हतोत्साहित हैं और कोई अन्य प्रगतिशील राजनितिक मंच नहीं होने से मजबूरी में भाजपा में बने हुए हैं।
राष्ट्रवाद की बात करने वाली बीजेपी जब जातिय आधार पर चुनावी रणनीति बनाने लगी तो इसका बड़ा नुकसान देखने को मिल रहा है। अब बीजेपी भी बिहार के उन दलों के साथ अगली पंक्ति में कड़ी है जहां अंतर करना असंभव लगता है। आलोचकों से इस बाबत पूछे जाने पर बीजेपी के नेता एक हीं तर्क देते हैं कि चुनाव जीतेंगें तब तो राष्ट्रीय (आरएसएस) एजेंडा लागू करेंगें। यह हास्यास्पद लगता है। कहना न होगा कि जिस तरीके से चुनाव जीत जा रहा है उससे एक ऐसे राज्य और समाज का निर्माण हो रह है जो भविष्य में अत्यंत विनाशकारी साबित होगा।
क़रीब क़रीब पंद्रह सोलह करोड़ की जनसंख्या वाला राज्य बिहार के बारे में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इसे बंधक बनाकर रखा गया है। आज सभी दलों के नीति / निर्णय का एकमात्र निहितार्थ चुनाव जीतना है न कि सच में बिहार की भलाई । जातिवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने के पीछे एक निहितार्थ यह भी प्रतीत होता है कि बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व के पास बिहार की प्रगति को लेकर कोई एजेंडा नहीं है। जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर जब यह कहते हैं कि पिछले नौ वर्षों में पीएम ने बिहार की प्रगति को लेकर कोई आधिकारिक मीटिंग नहीं की तो यह कहीं न कहीं सही लगता है और एक सोची-समझी एजेंडा हीं लगता है।
राजनितिक प्रेक्षकों का मानना है कि बिहार से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व केवल अधिक से अधिक लोकसभा की सीट जीतने में दिलचस्पी रखता है, उसे बिहार के विकास से उतना सरोकार नहीं जान पड़ता है। तभी तो भाजपा ने बिहार में अपने को नेतृत्वविहीन रखा और अपने दल को JDU का पिछलगू बनाकर रखा, ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस ने अपने दल को बिहार में RJD के साथ मिलकर पिछली पंक्ति में खड़ा होकर राजनीति की बिहार में भाजपा की राजनीति मुख्या धारा के राजनीति से विमुख हो गयी है।
बिहार में पिछले दशक में जिस प्रकार JDU BJP की डबल इंजन की सरकार में सीमांचल इलाके में – जनसांख्यिकी परिवर्तन हुआ और जिस प्रकार PFI ने बिहार में अपना केंद्र बनाया इसका मुख्या कारण यह रहा कि भाजपा की सरकार अपने को जातीय तुष्टिकरण में राजनितिक रूप से व्यस्त रखी और मूल राष्ट्रीय एजेंडा को भूल गयी। राजनितिक रूप से भाजपा भी JDU, RJD और वाम दलों की तरह कुर्मी, कुशवाहा, बनिया, दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा कि राजनीति कर रही है और इसने अपने राजनीति के राष्ट्रीय चरित्र को खो दिया है।
ऐसा लगता है कि भाजपा की पास मणिपुर कि तरह ही बिहार के लिए भी कोई राजनितिक सोंच नहीं है। मणिपुर अगर दो समुदायों की बीच हिंसा में जल रहा है तो बिहार में जातीय राजीनीति की चिंगारी सुलग रही है जो कालांतर में वीभत्स रूप ले सकती है। उसके बाद बिहार की राजनीति एक बार फिर ९० के दशक की मंडल कमीशन की राजनीति कि तरफ जा सकती है। अगर ऐसा होता है तो इसका श्रेय सभी राजनितिक दलों की साथ भाजप को भी जायेगा।
बिहार की राजनितिक पटल पर भाजपा का कोई सर्वमान्य घोषित नेता नहीं होना यह इंगित कर रहा है कि भाजपा भी कांग्रेस की तरह आलाकमान की राजनीति में विश्वास करती है, अंतर इतना है की कांग्रेस में एक परिवार आलाकमान की भूमिका में हैं और भाजपा में केवल दो व्यक्ति । कांग्रेस ने अगर धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ाया तो भाजपा ने हिंदत्व की आड़ में जातिवाद को बढ़ाया। भाजपा को अन्य क्षेत्रीय दलों की तरह जातिवाद को अघोषित रूप से एजेंडा में शामिल होना यह प्रमाणित करता है कि इसकी राजनीति अब मुख्य धरा से कट गयी। किसी अन्य राजनितिक विकल्प के अभाव में बिहार में लोग भाजपा को वोट दे रहे हैं।
अब बिहार के लोग बिहार में ऐसे नए राजनितिक दलों की तरफ देख रहें है जो जाती आधारित ध्रुवीकरण की वजाय विकास कि राजनीति करे समर्थ बिहार ने विकास की राजनीति की एजेंडा लेकर मुजफ्फरपुर से राजनीतिक पहल की है। – संजय कुमार एवं एस के सिंह (समर्थ बिहार)